पितृपक्ष: पूर्वजों के प्रति आस्था और श्रद्धा का पर्व

सतीश पाण्डेय,ब्यूरो रिपोर्ट, सब तक एक्सप्रेस
सनातन परंपरा में पितृपक्ष का विशेष महत्व है। यह वह पावन काल है जब लोग अपने देवतुल्य पूर्वजों को स्मरण कर तर्पण, पिंडदान और श्राद्ध के माध्यम से श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। मान्यता है कि इस अवधि में पितरों का आशीर्वाद प्राप्त करने से जीवन में सुख-समृद्धि और संतति की उन्नति होती है।
ज्योतिर्विद पंडित रजनीश पाण्डेय(रवि) के अनुसार, पितृपक्ष भाद्रपद मास की पूर्णिमा से शुरू होकर आश्विन अमावस्या तक चलता है। इसे महालय अमावस्या भी कहा जाता है। इस दौरान लोग नदी, तालाब और पवित्र सरोवरों के किनारे श्राद्ध कर्म करते हैं। काशी, गया, प्रयागराज और गया तीर्थ में विशेष भीड़ उमड़ती है, जहाँ दूर-दराज़ से श्रद्धालु पिंडदान करने पहुँचते हैं।
धार्मिक मान्यता है कि श्राद्धकर्म से न केवल पूर्वजों की आत्मा को तृप्ति मिलती है, बल्कि परिवार पर आने वाली बाधाएँ भी दूर होती हैं। पितृपक्ष आत्मचिंतन, कृतज्ञता और पारिवारिक मूल्यों को याद करने का भी अवसर है।
ईश्वर से प्रार्थना की जाती है कि इस महालय के दौरान लोगों द्वारा अपने पूर्वजों को विशेष रूप से याद किया जाता है उनकी एक प्रकार से पूजा किया जाता है जिससे अपने पूर्वजों और पितृजनों के आशीर्वाद से हमारे घर और परिवार में सुख शांति का वातावरण रहे और वह आशीर्वाद प्रदान करें।